बेटियाँ
पता नहीं कब
बड़ी हो जाती हैं बेटियाँ
जैसे
बड़े होते हैं पेड़
बड़े होते हैं दिन
बड़ी होती हैं रातें
पता नहीं कब
ओढ़ लेती है चादर
शर्म –ओ- हया के
पता नहीं कब उसका शरीर
बन जाता है
शरीर कहलाने लायक
पता नहीं कब
खिल जाते हैं फूल
खिल जाती है बेटियाँ
मुरझा जाते हैं फूल
मुरझा जाती हैं बेटियाँ
पता नहीं कब
बुहारन बन जाती हैं बेटियाँ
लाख कोशिश के बावजूद चौखट में
फंसी रह जाती हैं बेटियाँ
पता नहीं कब
उसके बाल कंघी में
उलझने लगते हैं
पता नहीं कब
माँ का स्नेहिल आँचल
बन जाता है
इज्जत ढकने का वस्त्र
कंधे झुक जाते हैं
जब आती हैं बेटियाँ
आँखे भर आती हैं
जब जाती हैं बेटियाँ
पता नहीं कब
आती हैं बेटियाँ
और क्यों
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