Wednesday, 24 October 2012

बेटियाँ



पता नहीं कब

बड़ी हो जाती हैं बेटियाँ

जैसे

बड़े होते हैं पेड़

बड़े होते हैं दिन

बड़ी होती हैं रातें

 

पता नहीं कब

ओढ़ लेती है चादर

शर्म –ओ- हया के

 

पता नहीं कब उसका शरीर

बन जाता है

शरीर कहलाने लायक

 

पता नहीं कब

खिल जाते हैं फूल

खिल जाती है बेटियाँ

मुरझा जाते हैं फूल

मुरझा जाती हैं बेटियाँ

 

पता नहीं कब

बुहारन बन जाती हैं बेटियाँ

लाख कोशिश के बावजूद चौखट में

फंसी रह जाती हैं बेटियाँ

 

पता नहीं कब

उसके बाल कंघी में

उलझने लगते हैं

 

पता नहीं कब

माँ का स्नेहिल आँचल

बन जाता है

इज्जत ढकने का वस्त्र

कंधे झुक जाते हैं

जब आती हैं बेटियाँ

आँखे भर आती हैं

जब जाती हैं बेटियाँ

 

पता नहीं कब

आती हैं बेटियाँ

और क्यों

चली जाती हैं बेटियाँ……|




--शायर आशीष



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