Saturday, 11 May 2013

टूट पड़ते हैं सब, फंसा शिकार देखकर..........




जमाने के घिनौने कारोबार देखकर ,
मैं खुश हूँ खुद को बेरोजगार देख कर । 

गली गली इंसानियत शर्मसार देखकर ,
जलता हूँ अपनी ताकत-इ-दीदार देख कर । 

ढूढ़ने गया था उस भीड़ में आदमी ,
लौट आया बुत दो चार देखकर । 

सुना है की मोहब्बत इस शहर में रहती थी ,
छुप गयी ... हर हाथ में हथियार देखकर । 

लगता है उसने भी ठिकाने बदल लिए ,
बद-दुआओं की लम्बी कतार देखकर । 

सोचता था की मैं भी तेरे हो साथ चलता ,
थम गए मगर कदम , रफ़्तार देखकर । 

कौन देखता है यहाँ मजबूरियों को ,
"टूट पड़ते हैं सब, फंसा शिकार देखकर "॥॥॥ 


                                                            --   आशीष (जो लिखता है दिल से )


0 comments: