टूट पड़ते हैं सब, फंसा शिकार देखकर..........
जमाने के घिनौने कारोबार देखकर ,
मैं खुश हूँ खुद को बेरोजगार देख कर ।
मैं खुश हूँ खुद को बेरोजगार देख कर ।
गली गली इंसानियत शर्मसार देखकर ,
जलता हूँ अपनी ताकत-इ-दीदार देख कर ।
ढूढ़ने गया था उस भीड़ में आदमी ,
लौट आया बुत दो चार देखकर ।
सुना है की मोहब्बत इस शहर में रहती थी ,
छुप गयी ... हर हाथ में हथियार देखकर ।
लगता है उसने भी ठिकाने बदल लिए ,
बद-दुआओं की लम्बी कतार देखकर ।
सोचता था की मैं भी तेरे हो साथ चलता ,
थम गए मगर कदम , रफ़्तार देखकर ।
कौन देखता है यहाँ मजबूरियों को ,
"टूट पड़ते हैं सब, फंसा शिकार देखकर "॥॥॥
0 comments: